Friday 5 May 2017

आदिवासी ‘युवाओं और बच्चों’ के लिए ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ नाट्य कार्यशाला

चिखलवाड़ी, त्र्यम्बकेश्वर , नासिक  ‘बेचने और खरीदने’ के मन्त्र से चलने वाले इस ‘मुनाफ़ाखोर’ भूमण्डलीकरण के दौर में मानव ने अपने ‘लालच’ की भूख को मिटाने के लिए ‘अंधाधुंध’ विकास के भ्रमजाल से अपने लिए सबसे बड़ा ‘पर्यावरण’ संकट खड़ा किया है . पृथ्वी ‘मानव’ की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधनों से लैस है, पर उसकी ‘लालच’ को पूरा करने के लिए उसके संसाधन ‘सीमित’ हैं . आज के आधुनिक कहलाने वाले पढे लिखे ‘अनपढ़’ समाज की जीवन शैली की दिशा ‘बाजारवाद’ तय करता है . ‘बाजारवाद’ की ‘लूट’ को विज्ञापन एक ‘लुभावन’ सपने के रूप में समाज को परोसता है . विज्ञापन के ‘मुनाफ़ाखोर’ जुमले ‘YOU do not need it, but you want to have it’ समाज का ‘कुतर्क’ मानस तैयार कर रहे हैं जो ‘ज़रूरत’ की निरर्थकता और ‘लालच’ की सार्थकता स्थापित कर रहा है और ऐसे विज्ञापन के ‘जुमले’ लिखने वाले मीडिया में ‘पर्यावरण’ बचाने की गुहार लगाते हैं . 

मीडिया में वो ’फ़िल्मी एक्टर ’ बिजली और पानी बचाने की अपील करता हुआ दिखता है जिसके ‘घर’ में सबसे ज्यादा ‘बिजली और पानी’ खर्च होता है .स्मार्ट फ़ोन पर busy बेरोज़गार ‘युवा’ झूठे संदेश को भेजने और ‘क्रिकेट’ में बाहुबली की चर्चा करने में व्यस्त है .. धरती माँ का बुखार हर पल बढ़ रहा है ..धरती संकट में है ... मध्यमवर्ग के ‘विकास’ के लिए ‘जंगल’ धड़ाधड़ काटे जा रहे हैं ... देश में सूखा चरम पर है ..किसान का हाल सब ‘विकास’ के अंधों के सामने है ... 

ऐसी हालत में रंगचिन्तक मंजुल भारद्वाज और ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ नाट्यसिद्धांत के अभ्यासक रंगकर्मी अश्विनी नांदेडकर , कोमल खामकर , तुषार म्हस्के 7 -10 मई 2017 तक वैतारना झील के परिसर में बसे ‘चिखलवाडी’ आदिवासी गाँव में ‘आदिवासी युवाओं और बच्चों’ के लिए 4 दिवसीय ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस – हमारा जीवन सुन्दर है !’ नाट्य कार्यशाला को उत्प्रेरित करेगें . इस कार्यशाला में सहभागी ‘पर्यावरण संरक्षण और संतुलन’ पर अपनी नाट्य प्रस्तुतियां करेगें . 

1992 से “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने जीवन को नाटक से जोड़कर रंग चेतना का उदय करके उसे ‘जन’ से जोड़ा है। विगत 25 वर्षों से “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने अपनी नाट्य कार्यशालाओं में सहभागियों को मंच,नाटक और जीवन का संबंध,नाट्य लेखन,अभिनय, निर्देशन,समीक्षा,नेपथ्य,रंगशिल्प,रंगभूषा आदि विभिन्न रंग आयामों पर प्रशिक्षित किया है और कलात्मक क्षमता को दैवीय वरदान से हटाकर कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण की तरफ मोड़ा है।मनुष्य से मनुष्यता,प्रकृति से उसके संसाधनों को छीनने वाला भूमंडलीकरण विषमता और अन्याय का वाहक है.हवा,जल,जंगल और मानवीयता की बर्बादी पर टिकी है इसके विकास की बुनियाद जिससे पृथ्वी का बुखार बढ़ रहा है . ऐसे समय में लोकतान्त्रिक व्यवस्था की आवाज़ ‘मीडिया’ भी पूंजीवादियों की गोद में बैठकर मुनाफ़ा कमा रहा है तो थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत राष्ट्रीय चुनौतियों को न सिर्फ स्वीकार करता हैं बल्कि राष्ट्रीय एजेंडा भी तय करता है ।भूमंडलीकरण ने दुनिया की जैविक और भौगोलिक विविधता को बर्बाद किया है और कर रहा है.इसका चेहरा बहुत विद्रूप है.इस विद्रूपता के खिलाफ नाटक “बी-७” से “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने अपनी वैश्विक हुंकार भरी और सन 2000 में जर्मनी में इसके प्रयोग किये. मानवता और प्रकृति के नैसर्गिक संसाधनो के निजीकरण के खिलाफ सन 2013 में नाटक “ड्राप बाय ड्राप :वाटर” का यूरोप में मंचन किया.नाटक पानी के निजीकरण का भारत में ही नहीं दुनिया के किसी भी हिस्से में विरोध करता है.पानी ‘हमारा नैसर्गिक और जन्मसिद्ध अधिकार है” निजीकरण के लिए अंधे हो चले सरकारी तन्त्र को समझना होगा की जो सरकार अपने नागरिकों को पीने का पानी भी मुहैया ना करा सके वो संस्कार,संस्कृति की दुहाई और विकास का खोखला जुमला बंद करे. आदिवासी सदियों से ‘जल,जंगल और पर्यावरण’ के संतुलन और संरक्षण का प्रहरी रहा है . 

सर्वहारा सांस्कृतिक केंद्र द्वारा युवा रंगकर्मी राकेश नाईक की स्मृति में आयोजित इस कार्यशाला में नाटक के माध्यम से इस अवधारणा को पुनर्स्थापित किया जाएगा कि बिकाऊ फ़िल्मी लोगों की बजाए ‘आदिवासी’ पर्यावरण’ के संतुलन और संरक्षण का ‘सच्चा और टिकाऊ दूत’ है !

reference:- http://iptanama.blogspot.in/2017/05/blog-post_97.html

Tuesday 2 May 2017

मानवाच्या शरीराच्या वेग – वेगळ्या आकारात घडणारे कलात्मक नाटक ...तुषार म्हस्के


शरीराचा योग्य उपयोग आपल्या कलेच्या माध्यमातून दाखवण्यासाठी थियेटर ऑफ रेलेवंस प्रतीबद्ध आहे . १९९२ पासून सुरुवात झालेला कलात्मक क्रांतीचा आंदोलन समाजात परिवर्तन करत आहे .
हे दृश्य प्रभावी पणे माणसाच्या हृदयाला भिडणारे आपला विचार हा कृतीच्या माध्यमातून नाट्य रूपाने मंचावर मांडताना दिसते आणि  त्यावेळी मनात कुतूहलाची थाप पडते ...

आम्ही नाटकात शरीराचा उपयोग नैपथ्य म्हणून करतो मानवी कलांनी सजलेली कलाकाराची आकृती नैपथ्य म्हणून दिसते ..मानवाच्या शरीराचे आकार हे अगदी सहजपणे आपला विचार दाखवत असतात ....
कलाकार मंचावर भूमिकेमध्ये प्रवेश करतो ...त्यावेळी तो आपल्या आकारातून आपला विचार पोहोचवतो ....नाटकामध्ये दृश्य एकदम मनाला भिडणारे वाटत असतात ...नदीच्या पात्रातील दगड दाखवायचे झाले तरी ...ते मंचावर आल्यानंतर दगडाच्या भूमिकेत आणि प्रेक्षकही  ते समजून जातात  कि हे दगड आहेत ... नाटकामध्ये  नदीचा दृश्य आल्यानंतर खरोखरच नदी वाहत असल्याची जाणीव नाटक पाहत असताना होत असते ...


आणि प्रेक्षक स्वतःला त्या नदीच्या किनारी बसलेला पाहत असतो ..थियेटर ऑफ रेलेवंस नाट्य सिद्धांतामध्ये तयार झालेली नाटके ही प्रेक्षकांच्या मनाला भिडणारी जाणवतात ...कारण , नाटकामध्ये विचार असतात ...त्याच बरोबर दृश्य रचना ...कलाकाराला आपली कलाकृती सादर करण्यासाठी उन्मुक्ततेने आपल्या शरीराचा उपयोग करुन  केलेला उन्मुक्त प्रवास आणि त्याचं सादरीकरण पाहयला मिळत ...



कलाकार भूमिकेतील विचाराना पकडतो आणि आपली भूमिका सादर करत असतो ... दृश्य रचनेमध्ये गाव दाखवायचं झाल तर ते गाव डोळ्याना दिसत ...गावात असणारे घरे ...झाडे , पक्षी , रस्ता आणि डोंगर आणि त्या गावात काम करणारी माणसे हि ,दृश्य रचनेत बोलू लागतात ...शहरांच्या  दृश्या मध्ये हि , आपल्या भूमिकेमध्ये असणारे कलाकार आपल्या शरीराच्या विविध आकाराने तयार केलेली आकृती हुबेहूब दाखवतात ... 



रंगचिंतक - मंजुळ भारद्वाज द्वारा लिखित आणि दिग्दर्शित नाटक म्हणजे एक क्रांती आहे . जी १९९२ पासून सुरु झाली आणि थियेटर ऑफ रेलेवंस सिद्धांत म्हणून जग प्रसिद्ध आहे ...जे नाविन्यासाठी प्रतिबद्ध आहे ....












रंगकर्मी
तुषार म्हस्के